ये जवळी घे जवळी
प्रिय सखया भगवंता
वेढुनि मज राहसी का
दूर दूर आता
रे सुंदर तव तीरी
जग हिरवे धुंद उरी
पातेंही न गवताचे
शोभवी मम माथा
निशिदिनी या नटुनी थटुनी
बघ नौका जाती दुरुनी
स्पर्शास्तव आतुर मी
दुर्लभ तो हाता
चमचमती लखलखती
तव मंदिरी दीप किती
झोपडीत अंधारी
वाचू कशी गाथा
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